जय सदगुरु देवन देववरं ।
निज भक्तन रक्षण देहधरम् ।
परदुःखहरं सुखशांतिकरं ।
निरुपाधि निरामय दिव्य परम् ।।1।।
जय काल अबाधित शांति मयं ।
जनपोषक शोषक तापत्रयम् ।
भयभंजन देत परम अभयं ।
मनरंजन भाविक भावप्रियम् ।।2।।
ममतादिक दोष नशावत हैं ।
शम आदिक भाव सिखावत हैं ।
जग जीवन पाप निवारत हैं ।
भवसागर पार उतारत हैं ।।3।।
कहुँ धर्म बतावत ध्यान कहीं ।
कहुँ भक्ति सिखावत ज्ञान कहीं ।
उपदेशत नेम अरु प्रेम तुम्हीं ।
करते प्रभु योग अरु क्षेम तुम्हीं ।।4।।
मन इन्द्रिय जाही न जान सके ।
नहीं बुद्धि जिसे पहचान सके।
नहीं शब्द जहाँ पर जाय सके ।
बिनु सदगुरु कौन लखाय सके ।।5।।
नहीं ध्यान न ध्यातृ न ध्येय जहाँ ।
नहीं ज्ञातृ न ज्ञान न ज्ञेय जहाँ ।
नहीं देश न काल न वस्तु तहाँ ।
बिनु सदगुरु को पहुँचाय वहाँ ।।6।।
नहीं रूप न लक्षण ही जिसका ।
नहीं नाम न धाम कहीं जिसका।
नहीं सत्य असत्य कहाय सके ।
गुरुदेव ही ताही जनाय सके ।।7।।
गुरु कीन कृपा भव त्रास गई।
मिट भूख गई छुट प्यास गई।
नहीं काम रहा नहीं कर्म रहा ।
नहीं मृत्यु रहा नहीं जन्म रहा ।।8।।
भग राग गया हट द्वेष गया ।
अघ चूर्ण भया अणु पूर्ण भया ।
नहीं द्वैत रहा सम एक भया ।
भ्रम भेद मिटा मम तोर गया ।।9।।
नहीं मैं नहीं तू नहीं अन्य रहा ।
गुरु शाश्वत आप अनन्य रहा ।
गुरु सेवत ते नर धन्य यहाँ ।
तिनको नहीं दुःख यहाँ न वहाँ ।।10।।
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ