बंधनकारक व मोक्षप्रदायक निश्चय
श्री योगवासिष्ठ महारामायण में महर्षि वसिष्ठजी कहते हैं : "हे श्रीरामचन्द्रजी ! विचारवान पुरुष के हृदय में चार प्रकार का विस्तृत निश्चय होता है ।
पहला निश्चय : 'पैर से लेकर सिर तक में माता-पिता द्वारा निर्मित हूँ' - इस प्रकार का एक निश्चय है । असत्-दर्शन युक्त निश्चय बंध के लिए है । (पूज्य बापूजी के सत्संग में आता है : कोई कितना ही बुद्धिमान हो, विद्वान हो, अपने को अक्लवाला समझता हो लेकिन शरीर के साथ जब तक अहं जुड़ा रहेगा तब तक संसार के भोगों की वासनाएँ बनी रहेंगी और वासना ही तो जीव के सर्व दुःखों और जन्म-मरण का कारण है ।)
दूसरा निश्चय : 'मैं देह, इन्द्रिय आदि सब पदार्थों से परे, बाल के अग्रभाग से भी सूक्ष्म हूँ ऐसा निश्चय सज्जनों के मोक्ष के लिए होता है । (जप-तप, सुमिरन, पूजा-अर्चना, सत्संग, सेवा आदि करने से समझ में आ जाता है कि जीवात्मा अमर है और शरीर नश्वर ।)
तीसरा निश्चय : 'जगत के सब पदार्थों का स्वरूपभूत अविनाशी में ही सब कुछ हूँ' - इस प्रकार का निश्चय भी मोक्ष का ही कारण है ।
चौथा निश्चय : 'मैं अथवा यह जगत सब आकाश के तुल्य सब शून्य ही है (परम, अमृत, अचिन्त्य, आंतर- आनंद- एकरस ब्रह्म ही तुम, मैं और जगत है, उससे भिन्न कुछ नहीं है)' - इस प्रकार का निश्चय भी मोक्षसिद्धि के लिए होता है । "
उपरोक्त निश्चयों में से पहला निश्चय जो बंधन के लिए कहा गया है, उसकी निवृत्ति कैसे हो और शुद्ध भावना से उत्पन्न हुए शेष तीन निश्चय जो मोक्ष के लिए कहे गये हैं, वे हमारे जीवन में कैसे आयें इसके लिए शास्त्र व संत कृपा करके मार्गदर्शन करते हैं :
यदि जीव मुक्त होना चाहे तो आज और अभी मुक्त हो सकता है क्योंकि वह पहले से ही मुक्त है । जीव केवल अज्ञान से अपने को देह मानकर और संसार को सत्य मान के कष्ट पा रहा है । इस अज्ञानजनित निश्चय को दूर करने के लिए सद्गुण, अपने स्वरूप के ज्ञान की जिज्ञासा और ऐसे आत्मज्ञानी सद्गुरु की निष्कपट शरणागति की आवश्यकता है जो उसे अनुभव करा सकें कि 'तू मुक्त ही है ।' सद्गुरु के उपदेश तथा उनकी कृपा से ही सर्व संशयों की, असत् निश्चय की निवृत्ति एवं मोक्षसिद्धिप्रद निश्चय अर्थात् अपने आत्मस्वरूप का बोध होता है ।
- लोक कल्याण सेतु - नवम्बर 2019