Type Here to Get Search Results !

संत कबीरजी जयंती



संत कबीरजी जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं...


🌹काशी में सर्वानंद नामक एक प्रकांड विद्वान अनेक पंडितों एवं विद्वानों को शास्त्रार्थ में हरा चुका था । इससे वहाँ के विद्वानों ने उसे ‘सर्वजित' उपाधि प्रदान की और इसी नाम से पुकारने लगे । उसकी माता अपनी काशी-यात्रा में एक बार कबीरजी के सत्संग में आयी और उनसे मंत्रदीक्षा ले गयी । पुत्र के पांडित्य की व्यर्थता को समझते हुए उसने एक दिन सर्वजित से कहा कि वह उसे तभी सर्वजित मानेगी जब वह कबीरजी को शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा ।

🌹माता के वचन सर्वजित को चुभ गये । एक बैल पर अपने शास्त्रों को लादकर वह काशी आया और कबीरजी के घर के सामने पहुँचकर पुकारा : ‘‘क्या कबीर का घर यही है" ?

🌹कबीरजी कहीं बाहर गये हुए थे । उनकी पुत्री कमाली पुस्तकों से लदे बैल को देख के समझ गयी और मुस्कराकर बोली : ‘‘यह कबीरजी का घर नहीं है'' । उनका घर तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव को भी नहीं मिला ।

कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल । 
पाँव न टिके पिपीलिका, पंडित लादे बैल ।।

अर्थात : कबीरजी का घर शिखर पर यानी अनंत ब्रह्माण्डों से भी ऊपर है, जिसका मार्ग इतना फिसलनभरा है कि चींटी के पैर भी उस पर जम नहीं सकते । पंडित विद्या के अहंकाररूपी बैल को लेकर जाना चाहता है, सो कैसे जा सकता है ? अहंकारी व्यक्ति ज्ञान के अंतिम साधन निर्विकल्प समाधि को कभी प्राप्त नहीं हो सकता ।

🌹सर्वजित सहसा कोई उत्तर नहीं दे पाया । इतने में कबीरजी आ गये । तब सर्वजित ने उन्हें शास्त्रार्थ करने के लिए चुनौती दी । चुनौती सुनकर उन्होंने कहा : भाई ! मैं तो एक साधारण, अनपढ़ जुलाहा हूँ । इतनी पुस्तकें तो मैंने जीवन में कभी देखी तक नहीं ।

🌹लेकिन सर्वजित शास्त्रार्थ करने के लिए जिद करने लगा और कबीरजी द्वारा पूछने पर अपनी माता की बात भी बता दी ।

🌹तब कबीरजी बोले : भाई ! मैं जानता हूँ कि शास्त्रार्थ में आपसे नहीं जीत सकता । मैं अपनी हार मानता हूँ ।

🌹सर्वजित : अगर आप हार मानते हैं तो लिखकर दे दें ।
🌹कबीरजी : मैं तो लिखना भी नहीं जानता । आप स्वयं अपने हाथ से अपने अनुकूल पत्र लिख लीजिए, मैं दस्तखत कर दूँगा ।

🌹सर्वजित ने लिखा : श्री कबीर साहेब शास्त्रार्थ में हार गये और पंडित श्री सर्वजित जीत गये । कबीरजी ने उस पर हस्ताक्षर कर दिये । घर लौटने पर जब सर्वजित ने कागज अपनी माता को दिखाया तो उसमें लिखा हुआ मिला : ‘श्री कबीर साहेब शास्त्रार्थ में जीत गए और पंडित श्री सर्वजित हार गए' ।

🌹अपने लिखने में ही गलती हो गयी है यह सोचकर सर्वजित पुनः काशी गया और कबीरजी से एक नयी पर्ची पर हस्ताक्षर करवाकर लौटा । किंतु आश्चर्य ! इस बार भी पर्ची पर वही लिखा था । इस प्रकार विजय-पत्र में बार-बार परिवर्तन देख पंडित मूर्छित होकर गिर पडा । जब मूर्छा हटी तब उसने अपनी माता से कहा : माँ ! ये कबीर अवश्य कोई जादूगर है । ये कुछ कर देते हैं और मेरा लिखा बदल जाता है ।

🌹उसकी माता प्रज्ञावान थी और कबीरजी की महानता से परिचित थी । वह बोली : हे पुत्र ! कबीरजी साधारण व्यक्ति नहीं, एक ब्रह्मज्ञानी एवं योगनिष्ठ संत है । स्वयं परब्रह्म परमात्मा ही करुणा करके ऐसे महापुरुषों के रूप में पृथ्वी पर नित्य अवतार लेकर आते रहते हैं । तुमने इतने इतिहास, पुराण और शास्त्र पढ़े हैं, बताओ तो सही कि किस शास्त्र में ऐसा प्रसंग आता है जिसमें कोई व्यक्ति ऐसे महापुरुष के यश को कम करके अपना नाम प्रस्थापित कर सका हो ? बेटे ! यह प्रत्यक्ष है कि जो उन्हें नीचा दिखाने का यत्न करता है, भगवान की ऐसी लीला हो जाती है कि उसको खुद को ही नीचा देखना पडता है ।

🌹पुत्र ! जो व्यक्ति परिणाम का विचार किये बिना ही क्रिया करता है, वह मनुष्य नहीं पशु है । उसका जीवन अंधकारमय हो जाता है । अतः मेरी तुमसे प्रार्थना है कि अहंकार सजाने का परिणाम क्या होता है इसकी ओर ध्यान दो और जिन्होंने महापुरुषों की शरण में जाकर अपना अहंकार विलीन कर दिया ऐसे लोगों के जीवन में क्या परिवर्तन हुए इसकी ओर भी नजर डालो । उसके बाद जो तुम्हें उचित लगे सो करो ।

🌹माँ की बातों पर सर्वजित शांत चित्त से विचार करने लगा । बाहर के पोथे रटने में माहिर सर्वजित ने आज जीवन में पहली बार भीतर का शास्त्र खोला था । कुछ समय बाद वह उठा और नंगे पैर कबीरजी के पास जाकर उनके चरणों में दण्ड की भाँति लेट गया । इस बार उसके साथ पुस्तकों से लदा बैल नहीं है, यह देखकर कबीरजी समझ गये कि यह अहंकाररूपी बैल से भी छुटकारा पा चुका है । कबीरजी के चरणों में गिड़गिड़ाते हुए सर्वजित बोला : महाराज ! आपने तो दया करके मेरे विजय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये परंतु भगवान ने उसमें मुझे ही पराजित कर मेरे अहंकार को तहस-नहस करके मुझ पर बड़ी कृपा की है । प्रभो ! आप अशरण-शरण्य हैं, मेरे अपराध को क्षमा करके मुझे अपना शिष्य बना लीजिये ।

🌹कबीरजी ने उसे गुरुमंत्र की दीक्षा दी और कहा : सर्वजित ! रटने मात्र से कोई पंडित नहीं होता । भीतर के प्रभुप्रेम के शास्त्र का ढ़ाई अक्षर भी जो पढ़ लेता है वही सच्चा पंडित है । अब तुम सच्चे अर्थ में पंडित बनने के रास्ते हो । जो सर्वत्याग यज्ञ करता है वही ‘सर्वजित' हो जाता है और अहं का त्याग ही सर्वत्याग है ।

🌹सर्वानंद अब वास्तविक ‘सर्वजित' बनने के रास्ते चल पडा और अपने सद्गुरु  की सेवा और उनके वचनों का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करते हुए उसने मनुष्य-जन्म का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त कर लिया ।

💢 💢 💢 💢 💢

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.